‘उत्तर देगा कौन?’ काव्य संग्रह की समीक्षात्मक लेख


"हम न पूज्य महान होना चाहते हैं।
 हम न तो भगवान होना चाहते हैं।
 है दिली ख़्वाहिश हमारी मात्र इतनी, 
हम फकत इन्सान होना चाहते हैं।
        उपरोक्त अवतरण में अखिलेश निगम ‘अखिल’ अपने मौलिक व्यक्तित्व को ध्येय बनाने है। प्रायः प्रश्न उठता है कि समकालीन परिस्थितियों में जहाँ मनुज अनेक व्यक्तित्व के आवरण को ओढे हुये बहुत सारे बनावटी रुप धारण किये है, तो इनसे वह कैसे अपने मौलिक को खोजे, जो उसे इंसान बनाये। इन्ही प्रश्नो की खोज और संवेदनशील नागरिक होने का गुण उन्हे ‘उत्तर देगा कौन’ काव्य संगह को रचने की प्रेरणा देता है। 
          वस्तुतः चार भागों क्रमशः दहकते प्रश्न, महानायक चन्द्र, यह कैसा सफर? और व्यंग्य-वीथी में वर्गीकृत यह संकलन है। यदि रचना को शब्द में बाँधने के लिए रचनाकार के उद्देश्यों को देखे तो पाऐगे कि “........ उत्तर देगा कौन??? में वर्तमान परिवेश की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं आर्थिक विषमताओं को रेखांकित किया गया है तथा उन विषमताओं के सन्दर्भ में जो प्रश्नरूपी महादैत्य सम्पूर्ण विश्व समुदाय के समक्ष उठ खड़े हुए हैं उन्हें कविता एवं व्यंग्य के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है तथा व्यक्तिगत एवं सामाजिक स्तर पर व्याप्त विभिन्न विषमताओं एवं समस्याओं का सुधावर्षण करने वाले चन्द्र के माध्यम से समाधान भी प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।” यद्यपि काव्य संग्रह के पहले भाग ‘दहकते प्रश्न’ में 11 कविताओं के माध्यम से वर्तमान मे प्रकाश डालते हुये अद्यतन की समस्याओं को चित्रण किया है। जहाँ एक ओर इंसान अपने जीवन की विलासता के लिए दिन प्रतिदिन विज्ञान का सहारा लेकर नई ऊँचाईयों को छूँ रहा है, तो वहीं वह अपने कर्तव्यों और अधिकारो को भूलकर अन्धी दौड़ में भागा जा रहा है । जिसके परिणाम स्वरुप वह अब अपने विवेक करने की क्षमता को भी खो बैठा है। 
मानवीय मूल्य निरन्तर विघटित
सुख-शान्ति की खोज में
एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में
अपराध और कुकर्म!?
……………….
……………….
बुद्धि के बल पर,
भावनाओं का शोषण,
केवल उदर-पोषण।
अन्तरंग और बहिरंग,
चतुर्दिक युद्ध ही युद्ध
तनाव, अशान्ति, गहन निराशा,
आज के दौर की समस्याओं को देखने का प्रयास करे तो पाऐगे की आतंकवाद और भूखमरी के बाद कोई समस्या है तो वह सामाजिक वैमनस्य की है। इसी सामाजिक वैमनस्य के कारण लोगो के बीच खाई बढकर सामप्रदायिक हिंसा का रुप धारण कर लेती है। आज दिन-प्रतिदिन जहाँ समाचार पत्रों में दंगे, लवजिहाद के नाम पर लिंचिग आदि समस्याएँ देखने को मिलती है, रचनाकार अपनी कविता के माध्यम ‘सड़क न्याय’ पर प्रश्न उठाते है।
बह रही निर्दोष खून की नहर
खूब हो रहे मग्न,
मना रहे जश्न?
सड़क पर बहते हुए खून ने
किया एक प्रश्न,
"जरा बताओ मेरा धर्म?"
सभी हो गए मौन उत्तर देगा कौन?
हाँ, उत्तर देगा कौन???

साहित्यिक रचनाकार को एक रचनाकार बनाती है,उसकी समाज औऱ प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता। अखिल जी भी अपने प्रथम शीर्षक दहकते प्रश्न का अन्त ‘सबसे बड़े प्रश्न’ नामक कविता में एक किन्नर की व्यथा को चित्रित करते है। यद्यपि आज अकादमिक जगत में किन्नर विमर्श तो अवश्य स्थान बना पाया है किन्तु समाज में आज भी वे उपेक्षा के पात्र है। वे लिखते है कि 
क्या, किन्नर होना कोई
अपराध है?
क्यों सभी हेय दृष्टि से देखते
देते भाँति-भाँति के
उलहाने और ताने?
           ध्यातव्य है कि कोई भी रचनाकार अपनी रचना के माध्यम से वास्तविक संसार के सामने एक प्रतिसंसार निर्माण करता है, जिससे वह उन रिक्तियों को भर सके जोकि उसे संसार में दिखाई देती है। अखिल जी जहाँ ‘दहकते प्रश्न’ नामक कविता-समुच्चय में जहाँ सामाजिक,राजनीतिक, सांस्कृतिक विद्रुपताओं को चित्रित करते है तो वहीं वे ‘महानायक चन्द्र’ नामक शीर्षक की कविता-समुच्चय में उन रिक्तियों को भरने का समाधान भी प्रस्तुत करने का प्रयास करते है। 
       आज पर्यन्त हम विज्ञान के कारण दिन-प्रतिदिन नई ऊँचाईयों को छू रहे है। जिसके लाभ भी है और हानि भी। प्रायः भागम-भाग दौड़ ने इंसान को कृत्रिम बना दिया है। इस कृत्रिमता को कम करने के लिए रचनाकार साहित्य साधना को उपयोगी समझता है।
साहित्य, संगीत, कला की त्रिवेणी का
शृंगार है सबसे बड़ा आधार।
पर शृंगार की धुरी है इन्दु।

     यदि सामाजिक वैमनस्य में दृष्टि डाले तो पाऐगे कि यह सामाजिक वैमनस्य चाहे तो धर्म के अनुनायीयों के मध्य हो अथवा दो समाज , परिवार के बीच ;सभी का एक ही कारण है- अनेक बीच खीची गई विभाजन रेखा। इस विभाजन रेखा को न्यून करने के लिए कविवर लिखते है कि               
दिल से दिल का नाता जोड़ो
अहं, कपट की कारा तोड़ो
दूर करो अज्ञान, बनो महान
रहो सदा गतिमान,
निरन्तर गतिमान।

          भारत के स्वतंत्र्यता के बाद जहाँ ‘अवसर की समानता’ की बात कही तो अवश्य गई किन्तु ‘अवसर की समानता’ के स्थान पर ‘अवसरवाद’ को स्थान अवश्य मिला। इस अवसरवादिता के कारण मानव-प्रवृत्ति में अनकहे परिवर्तन हुये जिसनें उसे कृत्रिमता दी; इन्ही परिवर्तनों को रेखाकित करते हुये अखिल जी ‘यह कैसा सफर’ की रचना करते है, जहाँ मनुष्य कुत्ते का प्रतीक बन जाता है। 
कुत्ते की वफादारी के लोग किस्से बयान करते हैं,
मगर मुझे समझ में नहीं आता,
यह मुहावरा नहीं भाता
वह तो अपनी जाति व समाज का हमदम नहीं होता,
करता है चापलूसी गैरों की अपनों पर भौंकता,
टुकड़े के लालच में,
लोगों के सम्मुख हिलाता है दुम,
प्रहार करो या करो बेइज्ज़त
अवसरवाद की संस्कृति चाटूकारिता के द्वार से होकर जाती है। आज का इंसान अपने स्वार्थी की सिद्धी के लिए चाटूकारिता करने में कभी भी असहज नहीं होता, अपितु अवसर प्राप्त करने के लिए वह अपनी विवेक-बुद्धि को भी नष्ट कर बैठता है।
आज इन चापलूसों की ही मची है धूम।
पैर चाटते-चाटते मुख लेते हैं चूम।
सहयोग-सहभागिता की जगह विरोध के झण्डे।
अपने ही समाज को तोड़ने को नित नव-नव हथकण्डे ।।

समाज में व्याप्त ‘अवसरवाद की संस्कृति’ को देखकर रचनाकार स्वयं से प्रश्न करने में विवश हो जाता है। वह कहता है कि
"बोलो धरा पर फैला है यह कैसा कहर?
इन्सानियत क्यों मर रही, यह कैसा सफर?
सभी श्वान देखने लगे
एक-दूसरे को हो गए मौन!?
उत्तर देगा कौन?
आखिर उत्तर देगा कौन? 

एक रचनाकार अपने रचनासंसार में जहाँ कथावस्तु के आधार पर वैविध्य उत्पन्न करता है वहाँ वह अपनी वाणी में वाक्-विद्कता से नये रुप गठता है। इसी प्रकार अखिल जी अपने व्यंग्यात्मक शैली से राजनीतिक विद्रुपताओं पर आघात करते है- 
चुनावी बयार चल रही उत्तप्त
देखता हूँ-
कुछ कौवे व गिद्ध स्वार्थ से सम्बद्ध
लोकतन्त्र की लाश को
इन्सानी मांस को
विभाजन, वर्ग संघर्ष, कोरे आश्वासनों की
पैनी चोंच से रहे हैं नौच
............................
खा जाने वाले लाश को
कैसे कर सकते यह दावा??
देश की स्थिति पर नियंत्रण सबसे अधिक राजनीति शक्तियों के पास होता है औऱ इस शक्ति पाकर स्वयं को स्वयंभू के रुप में प्रतिस्थापित कर सभी प्रकार के नियंत्रण पाना चाहते है-



जंगल बस्ती में हो रही थी
एक सभा,
सभापति बनने के लिए
एक से बढ़कर एक दावेदार
सम्पूर्ण जंगल बस्ती के लिए
कर रहे सिद्ध सबसे सच्चे रिश्तेदार ।।
आरोप-प्रत्यारोप, झूठ का पुलिन्दा,
फेंक रहे एक दूसरे पर
दलदल का कीचड़ गन्दा
कौन होगा जंगली शेर का
उत्तराधिकारी?
हर तरह की जुगत,
चापलूसी, बेकरारी।
उत्तराधिकारी बनने-बनाने का
खूबसूरत व्यवसाय।

अन्ततोगत्वा यह कहने में दो राय नहीं होगी की अखिल जी ने अपने काव्य संग्रह ‘उत्तर देगा कौन?’ में जीवन और समाज की विभिन्न विसंगतियों का परिचय कराकर अपनी समाज के प्रति दायित्व निर्वाह तो किया है, जो उन्हे सचेत नागरिक बनाती है।