कामायनी (चिंता सर्ग ) जयशंकर प्रसाद
कामायनी (चिंता सर्ग ) हिम गिरि के उत्तुंग शिखर पर,
बैठ शिला की शीतल छाँह।
एक पुरुष, भीगे नयनों से,
देख रहा था प्रलय प्रवाह।
नीचे जल था, ऊपर हिम था,
एक तरल था, एक सघन।
एक तत्व की ही प्रधानता
कहो उसे जड़ या चेतन।
दूर-दूर तक विस्तृत था हिम,
स्तब्ध उसी के हृदय समान।
नीरवता-सी शिला-चरण से
टकराता फिरता पवमान।
तरुण तपस्वी-सा वह बैठा,
साधन करता सुर-श्मशान।
नीचे प्रलय सिंधु लहरों का
होता था सकरुण अवसान।
उसी तपस्वी-से लंबे, थे
देवदारु दो चार खड़े।
हुए हिम-धवल, जै...
महाजनी सभ्यता ( प्रेमचंद )
महाजनी सभ्यता
मुज़द: ए दिल कि मसीहा नफ़से मी आयद;
कि जे़ अनफ़ास खुशश बूए कसे मी आयद।
(हृदय तू प्रसन्न हो कि पीयूषपाणि मसीहा सशरीर तेरी ओर आ रहा है। देखता नहीं कि लोगों की साँसों से किसी की सुगन्ध आ रही है।)
जागीरदारी सभ्यता में बलवान भुजाएँ और मज़बूत कलेजा जीवन की आवश्यकताओं में परिगणित थे, और साम्राज्यवाद में बुद्धि और वाणी के गुण तथा मूक आज्ञापालन उसके आवश्यक साधन थे। पर उन दोनों स्थितियों में दोषों के साथ कुछ गुण भी थे। मनुष्य के अच्छे भाव लुप्त नहीं हो गये थे। जागीरदार अगर दुश्मन के ख़ून...
जीवन में साहित्य का स्थान
जीवन में साहित्य का स्थान साहित्य का आधार जीवन है। इसी नींव पर साहित्य की दीवार खड़ी होती है। उसकी अटरियाँ, मीनार और गुम्बद बनते हैं लेकिन बुनियाद मिट्टी के नीचे दबी पड़ी है। उसे देखने को भी जी नहीं चाहेगा। जीवन परमात्मा की सृष्टि है, इसलिए अनंत है, अगम्य है। साहित्य मनुष्य की सृष्टि है, इसलिए सुबोध है, सुगम है और मर्यादाओं से परिमित है। जीवन परमात्मा को अपने कामों का जवाबदेह है या नहीं, हमें मालूम नहीं, लेकिन साहित्य तो मनुष्य के सामने जवाबदेह है। इसके लिए कानून हैं, जिनसे वह इधर-उधर नहीं हो...
साहित्य का उद्देश्य (प्रेमचंद )
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साहित्य का उद्देश्य
(1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन लखनऊ में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण।)
सज्जनो,
यह सम्मेलन हमारे साहित्य के इतिहास में स्मरणीय घटना है। हमारे सम्मेलनों और अंजुमनों में अब तक आम तौर पर भाषा और उसके प्रचार पर ही बहस की जाती रही है। यहाँ तक कि उर्दू और हिन्दी का जो आरम्भिक साहित्य मौजूद है, उसका उद्देश्य, विचारों और भावों पर असर डालना नहीं, किन्तु केवल भाषा का निर्माण करना था। वह भी एक बड़े महत्व का कार्य था। जब तक भाषा एक स्थायी रूप...
साम्प्रदायिकता और संस्कृति ( प्रेमचंद )
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साम्प्रदायिकता और संस्कृति
(प्रेमचंद का यह प्रसिद्ध लेख पहली बार 15 जनवरी 1934 को प्रकाशित हुआ था, आज इसका अधिक से अधिक प्रसार पहले से भी ज्यादा जरूरी है।)
साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह गधे की भाँति, जो सिंह की खाल ओढ़ कर जंगल के जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है। हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक स्वरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस...
लीप सेकेण्ड ( इंदिरा दाँगी )
लीप सेकेण्ड खच्च् !! —मौत के अपराजेय जबड़े ने कौर भरा; अबकी एक आकर्षक युवा ज़िंदगी निवाला है।
इंजीनियर गुलाल अपनी हालिया शुरू सॉफ्टवेयर कंपनी के दफ़्तर में रात तीन बजे तक काम करता रहा था एक बड़े सरकारी प्रोजेक्ट के लिए उसने इतनी तैयारी की है कि किसी दूसरी कम्पनी को ये प्रोजेक्ट मिल पाना कम-से-कम उसे तो मुमकिन नहीं लगता।
“इस प्रोजेक्ट के बाद कम्पनी का नाम एकदम से चमक जायेगा। मैं इतनी-इतनी मेहनत करूँगा इस पर कि लोग हमारे काम की मिसाल देंगे; हमारी कम्पनी को ढूँढते फिरेंगे काम देने के लिए। ...अ...